Poems of Amrita Pritam: Poetries that Define her Immense Love For Sahir 
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Poems of Amrita Pritam: Poetries that Define Her Immense Love For Sahir

Anjali Tyagi

Poems of Amrita Pritam: The initial prominent female Punjabi poet of the 20th century, through both her literature and life, establishes a lasting heritage for female writers in India. Her legacy encourages them to challenge and break societal norms, live authentically, and write without constraints.

The unreciprocated love tale between Sahir Ludhianvi and Amrita Pritam has been idealized in recent decades. Amrita's writings vividly portray her time with Sahir, highlighting her enduring respect for him despite their unconventional love story. The unattained aspect of their romance has infused their relationship with a mythical quality, and their admirers continue to associate the two closely.

It was a Love at First Sight For Amrita

Sahir and Amrita, despite never marrying, maintained a complex connection, coming in and out of each other's lives over an extended period. Even after finding other partners, a tender sentiment remained between them. Their initial encounter at a mushaira became a key moment, kindling love at first sight for Amrita.

She described how she became absorbed by Sahir's shadow as they walked, unknowingly foreshadowing the many years she would spend under his influence. Her words, concealed for so long, painted a picture of poems written in the name of Sahir's love, yet their source remained hidden.

It was a Love at First Sight For Amrita

Poems of Amrita Pritam for Sahir Ludhiyanvi

1. मैं तुम्हें फिर मिलूँगी

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी

कहाँ? किस तरह? नहीं जानती

शायद तुम्हारे तख़्ईल की चिंगारी बन कर

तुम्हारी कैनवस पर उतरूँगी

या शायद तुम्हारी कैनवस के ऊपर

एक रहस्यमय रेखा बन कर

ख़ामोश तुम्हें देखती रहूँगी

या शायद सूरज की किरन बन कर

तुम्हारे रंगों में घुलूँगी

या रंगों की बाँहों में बैठ कर

तुम्हारे कैनवस को

पता नहीं कैसे-कहाँ?

पर तुम्हें ज़रूर मिलूँगी

या शायद एक चश्मा बनी होऊँगी

और जैसे झरनों का पानी उड़ता है

मैं पानी की बूँदें

तुम्हारे जिस्म पर मलूँगी

और एक ठंडक-सी बन कर

तुम्हारे सीने के साथ लिपटूँगी...

मैं और कुछ नहीं जानती

पर इतना जानती हूँ

कि वक़्त जो भी करेगा

इस जन्म मेरे साथ चलेगा...

यह जिस्म होता है

तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर चेतना के धागे

कायनाती कणों के होते हैं

मैं उन कणों को चुनूँगी

धागों को लपेटूँगी

और तुम्हें मैं फिर मिलूँगी...

स्रोत :

  • पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 65)

  • रचनाकार : अमृता प्रीतम

  • प्रकाशन : कृति प्रकाशन

  • संस्करण : 2014

2. मुलाक़ात

मुझे पल भर के लिए आसमान को मिलना था

पर घबराई हुई खड़ी थी...

कि बादलों की भीड़ में से कैसे गुज़रूँगी...

कई बादल स्याह काले थे

ख़ुदा जाने—कब के और किन संस्कारों के

कई बादल गरजते दिखते

जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के...

कई बादल घूमते, चक्कर खाते

खँडहरों के खोल से उठते खतरों जैसे...

कई बादल उठते और गिरते थे

कुछ पूर्वजों की फटी पत्रियों जैसे...

कई बादल घिरते और घूरते दिखते

कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो

और जो कोई भी इस राह पर आए

वह ज़र ख़रीद ग़ुलाम की तरह आए...

मैं नहीं जानती थी कि क्या और किसे कहूँ

कि काया के अंदर एक आसमान होता है

और उसकी मोहब्बत का तकाज़ा...

वह कायनाती आसमान का दीदार माँगता है...

पर बादलों की भीड़ की यह जो भी फ़िक्र थी

यह फ़िक्र उसका नहीं, मेरा थी

उसने तो इश्क़ की एक कनी खा ली थी

और एक दरवेश की मानिंद उसने

मेरे श्वासों की धूनी रमा ली थी...

मैंने उसके पास बैठ कर धूनी की आग छेड़ी

कहा—ये तेरी और मेरी बातें...

पर ये बातें—बादलों का हुजूम सुनेगा

तब बता योगी! मेरा क्या बनेगा?

वह हँसा—

एक नीली और आसमानी हँसी

कहने लगा—

ये धुएँ के अंबार होते हैं—

घिरना जानते

गरजना भी जानते

निगाहों को बरजना भी जानते

पर इनके तेवर

तारों में नहीं उगते

और नीले आसमान की देह पर

इल्ज़ाम नहीं लगते...

मैंने फिर कहा—

कि तुम्हें सीने में लपेट कर

मैं बादलों की भीड़ में से

कैसे गुजरूँगी?

और चक्कर खाते बादलों से

मैं कैसे रास्ता माँगूँगी?

ख़ुदा जाने—

उसने कैसी तलब पी थी

बिजली की लकीर की तरह

उसने मुझे देखा,

कहा—

तुम किसी से रास्ता न माँगना

और किसी भी दीवार को

हाथ न लगाना

न घबराना

न किसी के बहलावे में आना

और बादलों की भीड़ में से—

तुम पवन की तरह गुज़र जाना।

स्रोत :

  • पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 33)

  • रचनाकार : अमृता प्रीतम

  • प्रकाशन : कृति प्रकाशन

  • संस्करण : 2014

3. मेरी ख़ता

जाने किन रास्तों से होती

और कब की चली

मैं उन रास्तों पर पहुँची

जहाँ फूलों लदे पेड़ थे

और इतनी महक थी—

कि साँसों से भी महक आती थी

अचानक दरख़्तों के दरमियान

एक सरोवर देखा

जिसका नीला और शफ़्फ़ाफ़ पानी

दूर तक दिखता था—

मैं किनारे पर खड़ी थी तो दिल किया

सरोवर में नहा लूँ

मन भर कर नहाई

और किनारे पर खड़ी

जिस्म सुखा रही थी

कि एक आसमानी आवाज़ आई

यह शिव जी का सरोवर है...

सिर से पाँव तक एक कँपकँपी आई

हाय अल्लाह! यह तो मेरी ख़ता

मेरा गुनाह—

कि मैं शिव के सरोवर में नहाई

यह तो शिव का आरक्षित सरोवर है

सिर्फ़... उनके लिए

और फिर वही आवाज़ थी

कहने लगी—

कि पाप-पुण्य तो बहुत पीछे रह गए

तुम बहूत दूर पहुँचकर आई हो

एक ठौर बँधी और देखा

किरनों ने एक झुरमुट-सा डाला

और सरोवर का पानी झिलमिलाया

लगा—जैसे मेरी ख़ता पर

शिव जी मुस्करा रहे...

स्रोत :

  • पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 85)

  • रचनाकार : अमृता प्रीतम

  • प्रकाशन : कृति प्रकाशन

  • संस्करण : 2014

4. पहचान

तुम मिले
तो कई जन्म 
मेरी नब्ज़ में धड़के
तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए--

एक गुफा हुआ करती थी 
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजुओं में लेकर 
मेरी साँसों को छुआ 
तब अल्लाह क़सम!
यही महक थी जो उसके होठों से आई थी--
यह कैसी माया कैसी लीला
कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे
या वही योगी है--
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है 
और वही मैं हूँ और वही महक है

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